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विश्वकर्मा जयंती : कर्म का उत्सव, सृजन का सम्मान

संपादक की कलम से – प्रदीप अग्रवाल

आज 17 सितम्बर है – विश्वकर्मा जयंती।

यह दिन केवल एक धार्मिक पर्व भर नहीं है, यह दिन हमें याद दिलाता है कि सभ्यताओं के निर्माण में केवल विचार ही नहीं, बल्कि हथेलियों की मेहनत और औजारों की खनक भी उतनी ही आवश्यक रही है।

भगवान विश्वकर्मा को हम विश्व के प्रथम अभियंता, प्रथम शिल्पकार, प्रथम वास्तुकार मानते हैं। देवताओं के महलों से लेकर स्वर्गीय रथों तक, उनके हाथों ने जो रचा, वह केवल कला नहीं था, बल्कि परिश्रम, ज्ञान और दृष्टि का अद्वितीय संगम था।

आज जब हम गगनचुंबी इमारतों, चमकती मशीनों और तकनीक से सजे आधुनिक संसार पर गर्व करते हैं, तो हमें नहीं भूलना चाहिए कि इसकी नींव उन्हीं कारीगरों के हाथों ने रखी, जिनकी हथेलियों पर समय की लकीरें नहीं, बल्कि विकास की इबारतें लिखी हुई हैं।

कारीगरों का सम्मान ही असली पूजा
हम अक्सर त्योहारों को पूजा-अर्चना तक सीमित कर देते हैं। दीप जलाते हैं, मालाएं चढ़ाते हैं और फिर अगले दिन अपने-अपने काम में लौट जाते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या भगवान विश्वकर्मा की असली पूजा इतनी सतही हो सकती है?

असली पूजा तब होगी जब हम अपने कारखानों के मजदूरों, अपने खेतों के हलवाहों, अपने वर्कशॉप और कारखानों के कारीगरों को सच्चा सम्मान देंगे। जब हम यह समझेंगे कि राष्ट्र की रीढ़ केवल नीतियों और योजनाओं से नहीं, बल्कि उन हाथों से मजबूत होती है, जो चुपचाप दिन-रात सृजन में लगे रहते हैं।

तकनीक बनाम मानवीय श्रम
आज का दौर डिजिटल और एआई का है। मशीनें इंसानों की जगह ले रही हैं, रोबोट उत्पादन कर रहे हैं, कंप्यूटर डिज़ाइन बना रहे हैं। लेकिन इस सबके बीच हमें याद रखना होगा कि मशीनें केवल सहायक हो सकती हैं, सृजनकर्ता नहीं।
क्योंकि सृजन केवल तकनीक का परिणाम नहीं, बल्कि आत्मा और भावनाओं का भी हिस्सा है। यही कारण है कि मशीन चाहे कितनी भी आधुनिक क्यों न हो जाए, इंसान के हाथों की गरमी और मन की सूझबूझ को कभी प्रतिस्थापित नहीं कर सकती।

राष्ट्र निर्माण का अनदेखा आधार
इतिहास साक्षी है कि राजाओं के महल हों या किसानों की झोपड़ियां, मंदिर हों या पुल, हथियार हों या औजार—हर जगह कारीगरों की मेहनत झलकती है। लेकिन अफसोस, यही मेहनतकश तबका अक्सर सबसे उपेक्षित रहा है।
आज विश्वकर्मा जयंती पर हमें प्रण लेना चाहिए कि हम श्रमिकों और कारीगरों की पहचान को केवल “मजदूर” शब्द तक सीमित न रखें, बल्कि उन्हें राष्ट्र निर्माता की संज्ञा दें।

विश्वकर्मा जयंती हमें सिखाती है कि “कर्म ही पूजा है” और “सृजन ही आराधना है।”
आइए, इस अवसर पर हम केवल औपचारिकता न निभाएं, बल्कि ठोस संकल्प लें कि हर उस हाथ का सम्मान करेंगे, जो देश के लिए कुछ रच रहा है, गढ़ रहा है, जोड़ रहा है। क्योंकि अगर नींव मजबूत है, तभी महल खड़े हो पाते हैं।

याद रखिए – राष्ट्र के भविष्य का असली शिल्पकार वही है, जो अपने कर्म से समाज को आकार देता है।

✍️— प्रदीप अग्रवाल

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